राजनीति क्या है ? इसका मूल उद्देश्य क्या है ?
बस इन्हीं दो प्रश्नों पर आज हम चर्चा करेंगे.
राजनीति क्या है ?
इस प्रश्न के अनेक उत्तर हो सकते हैं. लेकिन मूलभूत बात इतनी
ही है कि – राजनीति एक व्यवस्था है जिसमे “कुछ
पहले से बना लिये गए सिद्धांतों और नियमों” के आधार पर किसी देश की व्यवस्था चलाई जाती है.
राजनीतिक व्यवस्थाएं कई तरह की हो सकती हैं - लोकतांत्रिक व्यवस्था,
समाजवादी व्यवस्था अधिनायकवादी
व्यवस्था बगैरह वगैरह.
व्यवस्था कोई भी हो सब मे दो पक्ष होते हैं. एक पक्ष व्यवस्था का संचालन
करता है और दूसरा पक्ष उस संचालित व्यवस्था से प्रभावित होता है.
व्यवस्था का संचालन कैसा हो ?
संचालन
से प्रभावित होने वाले पक्ष की व्यवस्था के बारे मे क्या राय है ?
क्या व्यवस्था चलाने वाले समूह किसी को ज्यादा फायदा तो किसी
को कम फायदा पहुंचाते हैं ?
क्या व्यवस्था से संचालित मानव समाज कई उप समूहों मे बंटा
हुआ है ?
किसी विशेष समूह को फायदा पहुंचाने के लिए क्या व्यवस्था
अलग पैमाने अपनाती है ?
किसी
समूह को ज्यादा फायदा , तो किसी को कम फायदा किस वजह से होता है ?
क्या ऐसा भी कोई समूह है जिसके हिस्से मे सबसे कम फायदा आता है ?
इन
सभी सवालों के जवाब हम सभी जानते हैं . सभी से मतलब कि वे भी जो राजनीतिक व्यवस्था
चलाते हैं और वे भी जो राजनीतिक व्यवस्था के परिणाम भोगते हैं.
जब हम सभी सब कुछ जानते हैं तो समस्या
होनी ही नहीं चाहिए. लेकिन समस्या तो है ! समाज मे एक आदमी इतना अमीर कि सरकार को ही
हिला दे और दूसरा इतना गरीब कि दो वक्त के खाने का इंतजाम भी न कर सके !
आज ही केन्या
की एक महिला के बारे मे पढ़ा. आठ भूखे बच्चों को एक विधवा मां जब खाना नहीं दे पाती
तो दिखाने के लिए पानी मे पत्थर उबालती है. ताकि बच्चें समझें कि खाना बन रहा है . और ऐसा एक नहीं दो तीन दिन तक चलता है.
क्या हम मानव हैं ?
मुझे नहीं लगता ! हमारा शरीर
जरूर मानव जैसा हो सकता है लेकिन उसमे मानवता कहां बची है ? उन बेकसूर मासूम बच्चों का क्या अपराध है कि इस धरती पर अनाज होते हुए भी उन्हे भूखा सोना पड़ता है !
अब जरा अपने देश की बात की जाए ! हम आजकल हिंदुत्व की बड़ी बड़ी बातें करने लगे हैं. कौन
से हिंदुत्व की बात करते हैं हम ? हिंदू कभी इतना क्रूर नहीं था जितना आज है. हम क्रूरता को क्रूरता से खत्म करना चाहते हैं इतनी क्रूरता कब से आ गई हिंदू मे ? हमारे यहां भी भूख से तड़प कर दम तोड़ते बच्चों की खबरें आती रहती हैं. हमारे यहां भी लाखों टन अनाज गोदामों मे सड़ता है मगर भूख से दम तोड़ते किसी गरीब बच्चे के पेट तक नहीं पहुंचता. बेकसूर बच्चों को भूख से तडपते देख भी हमारी संवेदना क्यों नही जागती !
क्या
हम संकीर्ण (Narrow Minded) नहीं होते जा रहे
हैं ?
इदं मम परं चेति गणना लघु चेतसां ।
उदार चरितानां वसुधैव कुटुंबकम ॥
यह थी हमारी
मूल भावना . हमने काले गोरे का, अमीर - गरीब
का, ऊंच- नीच का,
अपने- पराए का कभी भेद नही किया
था. आज ये क्या हो गया है हमें ? हम तरह तरह के भय दिखा कर सत्ता
मे बने रहना चाहते हैं, लेकिन क्यों ? अरे
ये तो एक व्यवस्था है जिसे कभी कोई चलाता है तो कभी कोई. जो हमसे अच्छा इसे चला सके,
चलाए. हमें इसमे आपत्ति नहीं
होनी चाहिए.
आचार्य विष्णुगुप्त ( चाणक्य ) जैसा चरित्र भी तो इसी भारत
मे जन्मा था ! मेगास्थीनीज़ एक बार रात के समय आचार्य विष्णुगुप्त से मिलने उनकी कुटी
पर गया. कुटी मे अंधेरा था.
मेगास्थीनीज ने आवाज दी- आचार्य,
किसी जरूरी काम से आपसे मंत्रणा करनी है.
भीतर प्रकाश हुआ.आचार्य ने कुटी का कपाट खोला. मंत्रणा हुई.
बात खत्म होते ही आचार्य ने दीपक बुझा दिया. मेगास्थीनीज ने इसका कारण जानना चाहा तो
आचार्य ने उत्तर दिया- इस दीपक मे जो तेल भरा है वह राज्य की संपत्ति है. मेरी निजी
संपत्ति नहीं. इस प्रकाश का उपयोग मैं निजी हित मे नही कर सकता.
ऐसा उच्च
कोटि का आचरण चाहिए . इंद्रियजन्य सुखों के बियाबान मे अगर इंद्रियां भटकी हुई हैं
तो चाणक्य जैसा आचरण मूर्खता पूर्ण लगेगा. किंतु यदि मन इंद्रियों के विषयों मे नही
रमा हुआ है तो बच्चे की करुण रुलाई
हमे जरूर सुनाई देगी .
अतीत मे जब राज्य मे अनावृष्टि अतिवृष्टि अकाल या महामारी फैलती थी या फिर अन्य प्राकृतिक आपदाएं आती थी तो उनके लिए राजा स्वयं को दोषी मानता था.
अतीत मे जब राज्य मे अनावृष्टि अतिवृष्टि अकाल या महामारी फैलती थी या फिर अन्य प्राकृतिक आपदाएं आती थी तो उनके लिए राजा स्वयं को दोषी मानता था.
आज विश्व
के अधिकांश देशों मे देखिये- अकाल, महामारी,
अनावृष्टि, अतिवृष्टि जन संहार, सब असामान्य बातें अब सामान्य हो गई हैं. कई जगह तो राज्यों के मुखिया अपने नागरिकों का संहार करने मे
खुद ही जुटे हैं.
आज विश्व
की अधिकांश राजनीतिक व्यवस्थाओं मे शीर्ष पर बैठे अधिकार संपन्न सत्ताधीश अपनी सत्ता
को आमरण बनाए रखने के लिए हर हथकंडे अपना रहे हैं. ऐसा गठजोड़ बन गया है जैसा दुर्योधन
की राज्यसभा मे देखा जा रहा था. पितामह भीष्म मौन हैं. गुरु द्रोणाचार्य का सिर झुका
है. विदुर माथा पकड़ कर बैठे हैं. दुशासन द्रौपदी
को केश खींच कर सभा मे ला रहा है. दुर्योधन उसकी साड़ी खींच रहा है. सारे धर्मात्मा
मौन हैं. द्रौपदी विलाप कर रही है कि कोई कुछ बोले,
उसको नग्न होने से बचाए , किंतु सभी की जीभों पर सत्ता सुख के ताले जड़े हैं.
कोई भी इस जघन्य कृत्य का विरोध नही करता.
आज विश्व के अधिकांश देशों की जनता क्या द्रौपदी की भूमिका
मे नही है ?
क्या अपराध
है उन लाखों करोड़ों नागरिकों का जिनकी मूलभूत जरूरतें – रोटी,
कपड़ा और मकान भी ये राजनीतिक व्यवस्थाएं पूरा नहीं करतीं ? अपने ही नागरिकों मे जाति, धर्म. भाषा, प्रांत अपने पराए के आधार पर भेद करके उन्हे एक दूसरे के खून का प्यासा बना
देना क्या इंसानियत है ?
क्या था उस बच्चे का धर्म या उसकी भाषा या उसकी जाति-
जब तक वह मां की कोख मे था ? जैसे ही बाहर
आया तो हिंदू, मुसलमान, सिक्ख इसाई बन गया
? उसका नाम एक खास तरह का रख दिया गया ! उसके कपड़े एक खास तरीके
के सिलवाए गए ! उसकी जुबान, उसकी भाषा एक खास तरह की हो गई !
उसकी फूड हैबिट्स बदल गईं ! उसके रीति रिवाज, त्योहार,
इबादत के तरीके सब बदल गए !
करीब साठ
सत्तर या अस्सी साल तक वह मानव शरीर इन तमाम तरह की जिल्लतों को न चाह कर भी झेलता
रहा. वह कभी मन माफिक तरीके से न जी सका. जिस दिन देह ठंडी हो गई, सारी
जिल्लतें भी खत्म हो गईं. अब कोई नही कहेगा- ऐसा करो, वैसा करो,
ये खाओ, ये पहनो, ये जबान
बोलो, इसकी इबादत करो बगैरह वगैरह.
अब रूह
आज़ाद है. अब मृत्युलोक के किसी तानाशाह का
कानून उस पर नही चलेगा. मौत सबको आनी है. ऐसा
कोई माई का लाल पैदा नही हुआ जो कभी मरा न हो. अच्छे अच्छे आए और मौत से हार मान कर
चले गए. तो फिर अन्यायपूर्ण सत्ता के कीचड़ मे डूबे रहने का क्या औचित्य ?
सारी दिक्कतें ही तभी तक हैं जब तक इंसान अपनी बनाई
हुई व्यवस्था मे जीता है. ऊपर वाले की व्यवस्था लागू होती है जन्म से पहले और मृत्यु
के बाद. उस व्यवस्था मे कोई अपना पराया नही होता. अमीर गरीब नही होता,
सवर्ण दलित नही होता, इस प्रांत का या उस प्रांत
का नही होता , अपना या पराया जैसा कुछ नहीं होता. शायद तभी लोग आत्म हत्या करते हैं. मानव द्वारा बनाई
गई चक्रव्यूह सी दोष पूर्ण, पक्षपात पूर्ण व्यवस्था मे जीने की
बजाय उन्हे मरना ज्यादा अच्छा लगता है.
यह
सब बातें जो मैंने इस ब्लॉग मे कही हैं हम
सब जानते हैं. कुछ भी नया नही कहा. हमे लगता है कि जब शीर्ष पद पर बैठे सत्ता संचालक
भी इस सत्य से परिचित हैं तो वह ऐसी पक्षपात
पूर्ण व्यवस्था मे बदलाव क्यों नही करते ? जब
एक न एक दिन यह मरण धर्मा चोला छोड़ना ही है तो इससे इतना मोह क्यों. सत्ता का इतना
लोभ क्यो ? यह मौका जो प्राणि मात्र की सेवा के लिए मिला है उसे
आत्मा की आवाज़ के अनुकूल क्यों नही जिया जाता ? इतना घोर नश्वरवादी
दर्शन क्यों ? दूसरे की पीड़ा अगर हमे अपने भीतर महसूस नही होती
तो हमारे भीतर ईश्वर का निवास नही है.
एक
दो पंक्तियां लता जी की आवाज मे मैंने बचपन
मे सुनी थीं-
वैष्णव जन ते तेने
कहिये, पीड़ परायी जाणे रे ।
पर दुक्खे उपकार करे तोए मन अभिमान न आणे रे । ।
“
पीड़ पराई” शब्द मे संपूर्ण प्राणि जगत के प्रति करुणा है. संवेदना है. अहम की नही वयम की बात है. विश्व बंधुत्व की भावना है.
लेकिन
हर रात के बाद सुबह आना निश्चित है. हर सरदी के बाद वसंत का शुभागमन होना ही है. जब तक समाज की सीढ़ी के सबसे आखिरी पायदान पर खड़े आदमी के चेहरे पर मुस्कराहट नही आ जाती
तब तक सभी राजनीतिक व्यवस्थाएं ढकोसला हैं.
जहां
देखो मुखौटे ही मुखौटे दीखते हैं। यहां हर शख्स असली चेहरा ढांपे हुए है ॥
समाप्त
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