बस यही अपराध मुझसे हो गया था ।
भूख लगने पर जरा मैं रो गया था ॥
देखने में आप भी इंसान जैसे थे जनाब ।
जिंदगी भर इस भरम में जी गया था ॥
आपका हैवानियत से दूर तक रिश्ता न हो ।
इसी उम्मीद में बाकी सफर भी कट गया था ॥
सागरों का जल चुराए मेघ जाते हैं कहां ।
देख कर यह लूट मैं घबरा गया था ॥
जम गई है तो पिघल भी जाएगी ये झील ।
तभी इसके किनारे मैं जरा सा रुक गया था ॥
कभी तो चिलचिलाती धूप से राहत मिलेगी ।
इसी उम्मीद में मैं धूप को भी सह गया था ॥
कांच की ये खिड़्कियां खुल जाएंगी आखिर ।
दबाए मुट्ठियों में पत्थरों को रह गया
था ॥
आपकी भी जुल्म करने की कोई सीमा न थी ।
जुल्म सहने की हदों के पार तो मैं भी गया था
॥
माफ करना चाहिये तुमको खताओं पर ।
मान कर ऐसा खता करता गया था ॥
हमारे बीच में जब तक रहा इंसान था ।
जैसे
ही उठा ऊपर मसीहा हो गया था ॥
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