दाल का दर्शन


                           
              दाल - कितना छोटा सा शब्‍द है देखने में !  मगर कितना गंभीर ! कितना टेस्‍टी !कितना मक्‍खनी ! कभी एकदम पतला तो कभी कितना गाढ़ा । और सोशल भी कितना ? बगैर दाल शब्‍द के भात शब्‍द कितना फीका हो जाता है ? रोटी शब्‍द बगैर दाल शब्‍द के‍ कितना बेस्‍वाद कितना खुश्‍क लगता है ? और राजस्‍थानी बाटी की तो दाल के बगैर आप कल्‍पना ही न करें तो बेहतर होगा । दाल की ताकत को भांप केर ही एक कहावत का जीर्णोद्धार किया गया है । प्राचीन कहावत थी तू डाल डाल, मैं पात पात । अब नया रुप है  -  तू दाल दाल, मैं भात भात ।
हिंदी के कई मुहावरे अपनी शोहरत के लिए दाल के कर्जदार हैं । अब जैसे एक कहावत है छाती पर मूंग दलना  । आप खुद सोचिए अगर मूंग की दाल न होती तो दलने के शौकीन छातियों पर क्या खाक  दलते ? इसी तरह एक और मुहावरा है नाकों चने चबाना तो बरखुरदार अगर चने की दाल न होती तो नाकों से क्‍या चबवा लेते आप ? अपने मुंह मियां मसूर की दाल तभी तो बनी जब मसूर की दाल थी । अब आप कहते हैं मैं उड़द की सफेदी जितनी जमीन भी नहीं दूंगा । न हमारी उड़द की दाल होती न उस पर लेशमात्र सफेदी होती, न जमीन का फसाद होता, उसी तरह दाल भात न होते तो उसमें चंद कहां से आ जाते ?
पिछले कुछ बरसों में दाल की सिर्फ कीमतें बढ़ी हों ऐसा बिल्‍कुल नहीं है । कीमतें तो इन्‍सान के अलावा सभी चीजों की बढ़ी हैं । मगर देखने वाली बात ये है कि दाल के केस में कीमत के साथ साथ उसका सौशल स्‍टेटस भी बढ़ा है । ज्‍यादा अरसा नहीं हुआ कि जब दाल की औकात दो कौड़ी की भी न थी ।  हर अंजा गंजा दाल पी जाता । छोटी छोटी दुकानों में भी तकरीबन सभी दालें मिल जाती थी । अफसर बाबू को छोड़िए दिहाड़ी मजदूर तक रोटियों को दाल से खाते थे । ढाबों में पैसे सिर्फ रोटियों के लगते थे । दाल मुफ्त में थी । दाल की औकात घर की मुरगी बराबर भी नहीं थी । दाल पर बात तक करना फिजूल समझा जाता था । उतनी कीमत हो गई थी दाल की ।
मगर एक कहावत है सब दिन रहत न एक समाना ।  दाल के भी दिन फिरने लगे । जैसे जैसे हमारी विकास की गति बढ़ी वैसे वैसे  दालों का सामाजिक व आर्थिक स्‍तर भी सुधरने लगा । हमारे साथ साथ दालों का ग्‍लोबलाइजेशन भी होने लगा । हमारे दर्शन शास्‍त्र की तहर हमारी दालों की मांग भी पूरी दुनियां में बढ़ने लगी । इधर शेयर बाजार का सूचकांक एक अंक उछलता उधर हमारी पूजनीया दालों के भाव दो अंक उछल जातें। स्थिति ऐसी हो गई थी कि जस-जस सुरसा बदन बढ़ावा, तासु दुगुन कपि रुप दिखावा । शेयर सूचकांक रुपी सुरसा राक्षसी जितना बदन बढ़ाती, दाल की कीमत रुपी हनुमान जी की आकृति उससे दोगुनी हो जाती ।
और आज दाल ने अपना खोया हुआ आत्‍म सम्‍मान पा लिया है । आज दाल हमारे साहित्‍य को नई दिशा देने के लिए तैयार है । साहित्‍य के कारखानों में आजकल नई उपमाएं, नई कहावतें गढ़ी जा रही हैं । नए मुहावरे तथा भावी जरुरतों के लिए नये प्रतिमान बन रहे हैं । मुग्‍धा नायिका के मुख की कान्ति जअ अरहर की दली दाल सी दमकेगी । प्रेयसी का केश-व्‍यूह‍ यानी जूड़ा अब साबुत उड़द की दाल की ढेरी सा प्रतीत हुआ करेगा । चित्रा राजमा से नायिका के नेत्र होंगे तो धुली उड़द सा श्‍वेत उसका अंग-अंग होगा ।
साहित्‍य की भांति दर्शन (फिलोसफी) के क्षेत्र में भी दाल आज नई भूमिका निभाने को व्‍याकुल है । पुराने छह दर्शनों पर नये ढंग से खोज हो रही है । खोजों से कुछ चौंकाने वाले परिणाम मिल हैं । पता चला है कि दाल और ब्रह्म एक ही सिक्‍के के दो पहलू हैं । दाल परमात्‍मा का मूर्त रुप है तो ब्रह्म उसका अमूर्त रुप  । अहम ब्रह्मास्मि का संशोधित रुप है दाल ब्रह्मास्मि  अर्थात दाल ही ब्रह्म है  । महान पुरुष पहले सभी भूतों को आत्‍मवत देखा करते थे यानि आत्‍मवत सर्वभूतेषु लेकिन आज महान लोग सर्व भूतों को दालवत देखते हैं । अर्थात दालव र्वभूतेषु शंकराचार्य जी अगर आज होते तो कहते दाल सत्‍यं जगत मिथ्‍या ।  दाल इस जड़ चेतन स्‍वरुप प्रकृति के कण कण में विराजमान है । दाल ही इस चराचर जगत का चरम सत्‍य है । दाल से परे वैसे कुछ है नहीं । मगर कोई बताता है तो वह मिथ्‍या है । दाल का जिसने साक्षात्‍कार कर लिया वह आवागमन के चक्र से छूट गया ।
खोजों से यह भी पता चला है कि यदि श्रीकृष्‍ण आज जीवित होते तो वह अर्जुन से कहते हे अर्जुन, तू सारे अन्‍नों को छोड़ कर केवल दाल की शरण में आ, दाल तुझे सारे पापों से मुक्‍त कर देगी । इससे ज्‍यादा सोच मत ।
जिन लोगों ने दालों को गोदामों में छिपा रखा है । उन्‍हें कृष्‍ण कहते हे अर्जुन, दालों की रक्षा और स्‍मगलरों, जमाखोरों के विनाश के लिए मैं हर युग में अवतार लूंगा ।
इसी बात पर एक बार फिर जोर देते हुए वह कहते हे भारत विश्‍व में जब जब भी दाल की हानि होगी मैं दाल के उत्‍थान के लिए जन्‍म लेता रहूंगा ।
शिक्षा औंर संस्‍कृति जैसे नीरस, उबाऊ सेक्‍टर में भी दाल आज रोचकता के रंग भरने को बेताब है । सुना है सांस्‍कृतिक रुचि वाली एक मल्‍टीनेशनल कंपनी दालों पर एक स्‍पेशल इकॉनामिक जोन बनाने जा रही है । इस हजारों हेक्‍टेअर में फैले जोन में दालों की लुप्‍त प्रजातियां उगाने की कंपनी की कोशिश होगी यहां एक विशाल दाल म्‍यूजियम होगा, जिसमें दुनिया भर की दालों के नमूने रखे जायेंगे । हर नमूने पर दाल का रासायनिक विश्‍लेषण, दाल का उत्‍पत्ति स्‍थान तथा दाल का मूल्‍य प्रति दस ग्राम अंकित होगा । प्रति किलोग्राम दाल का मूल्‍य तब तक चार अंकों में आने की संभावना है । दाल के नमूनों पर बीसवी शताब्‍दी के कुछ महत्‍वपूर्ण रेट भी दर्ज किये जायेंगे । जैसे कि आजादी से पहले दालें कितने पैसी की धड़ी (करीब पांच किलो) थीं । फिर हर दस साल में किस रफ्तार से कीतम बढ़ी । ये सारी जानकारी कंप्‍यूटर पर भी उपलब्‍ध होगी ताकि दाल पर शोध करने वालों को डेटा तत्‍काल मिल सके ।
दाल के सुनहरे भविष्‍य को देखते हुए इस म्‍यूजियम में एक थियेटर बनाने का प्रस्‍ताव भी है । डाक्‍यूमेंट्री फिल्मों के जरिये याहं लोगों को बताया जायेगा कि जब मार्केट दाल खरीदने आप भविष्‍य में जाएंगे तो क्रेडिट कार्ड लेकर जायें । कैश ले जाने में काफी परेशानी होगी  क्‍योंकि एक किलो दाब तब कम से कम एक हजार रुपये की अवश्‍य हो चुकी होगी ।     
अंत में  इतना ही कहना  काफी होगा कि दाल अब बुरे दौर से निकल चुकी है । हर दिन  वह सफलता की नई ऊंचाइयां छूती जा रही है ।
दाल को उसका खोया हुआ सम्‍मान लौटाने वाले शहीदों की चिताओं पर हर बरस मेले लगेंगे । दाल पर मरने वालों का नहीं बाकी निशान होगा । धन्‍य है भारत मां के सच्‍चे सपूत जिन्‍होंने अथक परिश्रम करके दाल को माल में बदला ।
उनका यह त्‍याग यह बलिदान बेकार नहीं जाना चाहिए ।
हम लाये हैं दालों को घर से निकाल के ।
रखना इन्‍हें म्‍यूजियम में मेरे बच्‍चों संभाल के ।


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डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
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