गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

तंत्र हूं मैं

   
पीठ पर चिपके अवांछित
लोक के वेताल को ढोता हुआ निरुपाय 
तंत्र हूं मैं ।
निष्प्रयोजित लोक के इस भार को यूं लाद कर
और कितनी दूर तक मैं जा सकूंगा-
कह नहीं सकता ।
अनवरत चलते प्रगति के यज्ञ में
दे चुके हो लोक तुम पूर्णाहुति
हड्डियों के एक ढांचे के सिवा
संपदा के नाम पर
कुछ नहीं बाकी तुम्हारे पास ।
लोक अब तुम बोझ हो मुझ तंत्र पर
एक पग भी चल नहीं पाता
तुम्हारे भार को लेकर विकल हूं मुक्ति पाने को
तुम्हारे अस्थिपंजर से 
लोक के कंकाल तुमसे प्रार्थना है-
ज़िंदगी  के चंद लमहे और दे दो ।
छोड दो मुझको मेरे ही हाल पर ।
तुम्हारे बोझ से विचलित हुआ जाता  -तुम्हारा मित्र
तंत्र हूं मैं ।
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