गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

तलाश एक कहानी की

           

                किचन से बरतन गिरने की तेज़ आवाज़ों नें मुझे जल्दी जगा दिया था. जा कर देखता हूं- पत्नी भुनभुनाती, पैर पटकती किचन में चक्कर लगा रही है. वाश बेसिन जूठे बरतनों से अटा पड़ा है. उधर बाथ रूम मे भी  मैले कपड़ों  का ढेर जमा  है.

'क्या हुआ नम्रता ? क्यों परेशान हो ?'

चाय बनाने के लिए जूठे बरतन धोती पत्नी बड़बड़ाई- जाने किस बुरी घड़ी में इस मक्कार से पाला पड़ा ? दो रोज़ तो ऐसा काम दिखाया जैसे आसमान तोड़ देगी. अब पैर जमे, तो ईद की चांद हो गई !चार रोज़ से गायब है पट्ठी. पैसे अलग दो, दिमाग अलग खराब कराओ.'
दरअसल कल शनिवार था, और मैं देर तक जाग कर नई कहानी का प्लॉट सोचता रहा था. काफी कोशिश के बाद भी जब कोई प्लॉट न मिला तो मैने तय किया कि  कल सवेरे ही नाश्ता करके निकल पडूंगा. यों ही भटकता रहूंगा सड़क पर, पार्क में, बसों में, लोकल ट्रेन में.  देखता हूं कैसे नहीं मिलता कहानी का आइडिया. सबसे पहले तो मिलूंगा उस भिखारिन से जो अंधेरी स्टेशन के पास सिग्नल पर अक्सर खड़ी मिलती है.अच्छी खासी, हट्टी-कट्टी . हर कार, ऑटो वाले के आगे हाथ पसार कर कहती है-बाबू जी, मेरा आदमी मर गया है. उसका किरिया-करम करना  है. कुछ मदद कर दो.

जो उसे नहीं जानते, दे ही देते हैं पांच -दस रुपए.

सोचता हूं, अगर भिखारिन न मिली तो ? तो भी क्या ? वह पगली तो मिल ही जाएगी. टी शर्ट, पैंट पहने, कहीं न कहीं खड़ी, फुटपाथ के कोने पर बैठी, मुस्कराती, कुछ सोचती. मैं यकीन के साथ कह सकता हूं कि वह किसी छोटे शहर से यहां हीरोइन बनने आई होगी. मगर बन गई पागल.
बाई के आज फिर न आने से मेरा सारा प्रोग्राम गड़बड़ा गया. सिर्फ चाय पीकर निकल पड़ा हूं कहानी की तलाश में.

चलते हुए मैं बाई के बारे में  सोचने लगा- अभी दो महीने पहले तो वह हमारे यहां काम पर लगी थी. बेहद दुबली पतली, सांवली, दस-बारह साल की लड़की. माथे पर चन्दन का सफेद टीका, चूड़ीदार सलवार-कुरता व चुन्नी ओढ़े, आंखों में दरकते सपनों की कसक, होंठों पर फीकी, जबरदस्ती ओढ़ी हुई मुस्कान, संकोच व लज्जा से गड़ी जा रही लक्ष्मी.

 क्या यही है बाई ? यह कर पाएगी चार-चार कमरों का झाड़ू-पोचा और बरतन ? वह भी पांच पांच घरों में ? यकीन तो नहीं आया, मगर सच यही था. हमारा सारा परिवार बिस्तर पर पसरे हुए जब टीवी देखता, नाश्ता करता, तो लक्ष्मी खामोशी से, सिर झुकाए, अपने काम में लगी रहती. एक-एक चीज़ को सही जगह रखती,शो पीसों को कपड़े से अच्छी तरह पोंछती, झाड़ू बुहारती, कोने-कोने तक पहुंच कर फिनाइल का पोचा लगाती, बिस्तर पर बिखरे चाय-नाश्ते के खाली बरतन बटोरती, वाश बेसिन में रात से पड़े जूठे बरतन धोती-यह सब उसके रोज़मर्रा के काम में शामिल था. और पगार, सिर्फ पांच सौ रुपए माहवार. जब कि बाकी घरों में, सब्ज़ी काटना, आटा गूंधना, रोटी बनाना वगैरह भी उसके काम में शामिल था.

मेरा खयाल था कि यह नाजुक सी बच्ची इतना बोझ नहीं उठा पाएगी. मगर वह महीने भर तक बराबर आती रही. एक भी नागा नहीं किया. और पिछले दिनों उसकी मां गांव गई तो अपने वाले चार और घर, लक्ष्मी को थमा गई.

सुन कर मैं कांप उठा. एक छोटी सी बच्ची, जिसके अभी खुद ही खाने-खेलने के दिन थे, जिसकी उम्र के बच्चे अभी अपनी थाली भी साफ नहीं करते, उस पर एक साथ नौ घरों का काम ! क्या ये सरासर अन्याय नहीं है ? उसके मां बाप तो गुनाहगार हैं ही, साथ में हम जैसे सभ्य लोग भी क्या बराबर के जिम्मेदार नहीं हैं ? खुद तो हम अपने एक घर का काम नहीं कर पाते, और उस छोटी सी बच्ची से नौ घरों का काम कराएं ! वह भी बेरहमी से ! क्या वाकई हम इन्सान कहलाने लायक हैं ? मजबूरी का फायदा हैवानियत तक जा कर उठाना -क्या यही इन्सानियत  है ?

नतीज़ा वही हुआ, जिसकी उम्मीद थी. तीसरे ही दिन लक्ष्मी बीमार पड़ गई.पता चला उसे तेज़ बुखार है. फिर भी चौथे रोज़ वह काम पर आ गई. सर्द, पीला चेहरा देख कर ही लगता था कि वह अब भी ठीक नहीं है. उसे काफी ज़्यादा थकान है, और आराम की सख्त ज़रूरत है. आते ही उसने झाड़ू उठाया, और हमेशा की तरह सिर झुकाए, काम पर जुट गई.

मगर थोड़ी देर बाद ही उसे चक्कर आ गया. वह एक तरफ लुढ़क गई.

'ऐसी हालत में काम पर क्यों आई लक्ष्मी? दो एक दिन और आराम कर लेती. काम कहीं भागा थोड़े जाता था.!'
पत्नी ने उसे सहारा देकर बिठाया और पूछा तो वह मुंह छिपा कर सिसक पड़ी. मुश्किल से उसे चुप कराया जा सका. सिसकते हुए बोली 'पापा सवेरे ही इडली बेचने निकल जाते हैं. बड़ी बहनों के पास पहले से ही सात सात घर हैं. भाई है पर उसका एक गिलास पानी तक का सहारा नहीं है. दिन भर आवारा घूमता है.  घर पर किसके सहारे रहती बीबी जी'?

 लक्ष्मी की सिसकियां कुछ कम हुईं तो पत्नी ने उसे लिटा दिया. कुछ देर आराम करने के बाद उसे चाय-नाश्ता कराया. धीरे-धीरे लक्ष्मी सामान्य हो गई

............जेवीपीडी स्कीम की सड़क  पर चलते हुए  देखता हूं- नुक्कड़ पर खड़ा सांवला सा, इकहरे बदन का एक आदमी इडली-चटनी बेच रहा है. सफाई वाले इतमीनान से ले कर खा रहे हैं. राह चलते दिहाड़ी मज़दूर भी लाइन से खड़े बारी की इंतज़ार में हैं. सोचता हूं- कहीं वह लक्ष्मी का पिता तो नहीं ?  वैसे वह कोई और भी हो तो  फर्क क्या पड़ता है ? नाम बदल जाने से हालात तो नहीं बदल जाते.

सुबह लोग जॉगिंग के लिए पार्कों की तरफ जा रहे हैं. टी-शर्ट, हाफ पैंट व स्पोर्ट्स शू पहने. उन्हीं सड़कों से होकर जा रही हैं बाइयां,घरों में काम करने. स्कूल जाते अपने बच्चों को, अपने घर के झाड़ू-पोचे को, काम पर जाते अपने पतियों को -उन्हीं के हाल पर  छोड़ कर. क्या इन बाइयों में लक्ष्मी की मां या बहनें भी होंगी ?

सड़क पर अभी शैतान बच्चों का झुंड नहीं पहुंचा है. चिड़ियों को गुलेल से मार गिराते, गिरगिट की पूंछ पर रस्सी बांध, हवा में घुमाते, कुत्ते-बिल्लियों को बेवज़ह पत्थर मारते, पेड़ों पर चढ़, घोंसलों से चिड़ियों के नन्हें बच्चे निकालते - बिगड़ैल बच्चों का झुंड. अभी वे सब सो रहे होंगे. लड़के हैं न ! लाड़-प्यार में पले !  उसी झुंड में लक्ष्मी का भाई भी होगा, जो तीसरी में तीन बार फेल होने पर स्कूल से निकाल दिया गया है
.................मैं भी ये क्या रोना-धोना ले बैठा. अरे ऐसी हज़ारों-लाखों ट्रेज़ेडी तो दुनियां में रोज़ होती हैं. किस किस पर रोएं ? आपको रुलाना भी मेरा मकसद नहीं है. मैं तो सडक पर इसलिये निकला हूं ताकि कहानी लिखने के लिये मुझे कोई चटपटा, मसालेदार, फड़कता हुआ प्लॉट मिल जाए. कहते हैं- दुनियां की अच्छी कहानियां ज़िन्दगी से ही उठाई गई हैं. खयालों की दुनियां से नहीं.

रोमांटिक सी, गुदगुदाने वाली कहानी ठीक रहेगी- यही सोच कर मैं जुहू बीच की तरफ आया हूं. छुट्टी का दिन है. चारों तरफ खूब चहल -पहल है. रेत पर दरियां बिछा कर  बैठे उम्रदराज़ लोग सागर की असीम गहराई में डूबे हैं. नौजवान  लहरों से उठते जीवन संगीत में खोए हुए हैं. बच्चे गुब्बारे उड़ाने व उछल-कूद मचाने में तल्लीन हैं. कहीं छोटे बड़े मिल कर फुटबॉल, वॉलीबॉल खेलने में मशगूल हैं. नव-विवाहित जोड़े  ऊंची लहरों के बीच,एक दूसरे के कंधों पर सिर टिकाए, फोटो खिंचवा रहे हैं. पाव-भाजी, भेलपूरी व नारियल पानी वाले आवाज़ें दे देकर लोगों को बुलाते हैं. दूर, समुद्र के बीच से उठी, लहरें गरज़ती हुई किनारों की तरफ बढ़ती हैं लेकिन किनारी तक आते आते थक जाती हैं. छुपा लेती हैं  उतरा हुआ निराश चेहरा, किनारे की चमकदार रेत पर.

कितना बिंदास, खुशनुमा माहौल है ! फिर भी मैं खुद को अकेला महसूस कर रहा हूं. मेरी तरह और भी बहुत से लोग हैं जुहू बीच पर, जो भीड़ में होते हुए भी एक दम अकेले हैं. कोई नहीं जानना चाहता  किसी के बारे में.
क्या लहरें भी शहर के करीब आकर पत्थर हो जाती हैं? इस महानगर का असर क्या उन पर भी पड़ता है ? लेकिन लक्ष्मी भी तो इसी बड़े शहर में रहती है. उसकी संवेदनाएं क्यों नहीं मरीं ?  राखी के दिन दो राखियां ले कर काम पर आई और खुशी से चहकती हुई बोली- आंटी,भाई लोगों के लिये राखी लाई हूं.
- इतनी महंगी राखी क्यों लाई बेटे ? पूछने पर गर्व से नन्हा सीना फुला कर बोली थी लक्ष्मी- अपने पैसों से लाई हूं. किसी से मांगा नहीं आंटी.
चांदी का पानी चढ़ी वे राखियां कीमती थीं.छोटी सी दुबली-पतली कमज़ोर लक्ष्मी भीतर से कितनी मज़बूत, व कितनी विशाल है- यह उसकी लाई राखियां बता रही थीं.

लक्ष्मी का कद मेरे भीतर कहीं  अनायास ही  ऊंचा उठ गया था. उसके हृदय में लहराते प्रेम के सागर नें मुझे भिगो दिया था. मुझे लगा- मानवीय संवेदनाएं रुपए-पैसे से कभी नहीं  आंकी जा सकेंगी. वे ऊपर होती हैं, बहुत ऊपर.
मगर ठीक उसी वक्त एक और विचार मेरे मन में आया- क्या मुझे लक्ष्मी की इन्सानियत से प्रभावित होना चाहिये ?क्या मुझे उसके साथ सिर्फ मालिक जैसा बर्ताव नहीं करना चाहिये ?

मेरा झूठा स्वाभिमान जाग उठा. खोखले अहं ने फन फैलाया. मुझे लगा- लक्ष्मी दबी-कुचली, गरीब तबके की एक मामूली बाई है. बाई होकर भी उसने राखियां लाने की हिम्मत कैसे की ? उसके-हमारे बीच मालिक मज़दूर वाले रिश्ते हैं. इन रिश्तों को प्रेम व आत्मीयता के पानी से वह क्यों सींचना चाहती है ?........
मैं अब बैठ गया हूं रेत पर. निहारने लगा हूं सागर-लहरों को. उफनती ही जा रही ज्वार की फेनिल लहरें हर पल मेरे करीब आ रही हैं. कभी तृप्त न होने वाली, गुर्राती लहरें. लक्ष्मी के पिता की महत्वाकांक्षाओं से भी ऊंची, असीम, विराट !

जाने क्यों लग रहा है  मुझे कि लक्ष्मी काम पर आ गई होगी. दस दिन हो गए उसकी मां को गांव गए. लौट आई होगी. पत्थर दिल पिता उसे आराम नहीं करने देगा. पहली बार  भी तो बीमार लक्ष्मी को दूसरे दिन ही उसने काम पर भेज दिया था. इस बार भी घर पर टिकने नहीं देगा. पैसा बच्चों से भी ज्यादा प्यारा है उसे.  पगार छीन कर सीधे बैंक में जमा कर आता है. झोंपड़ा भाड़े पर उठा दिया. रोज़ की कमाई से घर चलाता है. दौलत का जुनून उसके दिमाग पर सवार है.  लक्ष्मी एक रोज़ बता रही थी कि रिश्तेदारों नें गांव में पापा का ज़मीन-घर छीन लिया था. मारा-पीटा भी बहुत. खत्म करने की धमकी दी. किसी तरह बच कर भागे पापा. बस ! तभी उन्होनें कसम खाई थी कि पैसा कमा कर खूब ज़मीन खरीदूंगा, आलीशान हवेली बनाऊंगा. फैक्टरी डालूंगा. दिखा दूंगा सबको.
कितने बड़े सपने हैं लक्ष्मी के पापा की आंखों में ! पर उसके साधन कितने छोटे ! कहने को एक एक बूंद से समुद्र ज़रूर भरता है, मगर वक्त कितना लगता है ? क्या इतने छोटे, अस्थिर से जीवन में उसका यह विराट सपना पूरा हो सकेगा ?

सूरज धीरे-धीरे सिर पर आ गया है. पांव खुद ब खुद घर की तरफ उठ गए. सोचता हूं लक्ष्मी से मालिक नौकर वाला नहीं बल्कि बाप-बेटी वाला बरताव करूंगा. कोशिश करूंगा कि उस पर काम का ज्यादा बोझ न पड़े. कहूंगा उसकी मां से कि, बेटी को पढ़ाए. घर-बाहर का सारा  काम करके भी वह हमेशा अच्छे नंबरों से पास हुई. क्यों छुड़ाया उसका स्कूल ? उसकी फीस, ड्रेस,कापी-किताबों का खर्च मैं उठाने को तैयार हूं, मगर बच्ची को स्कूल भेजो.

हो सकता है लक्ष्मी की मां हंस कर टाल दे. कहने लगे कि कन्या तो पराया धन है. क्या फायदा पढ़ा-लिखा कर. मगर मैं धमकी का सहारा लूंगा. कहूंगा-चौदह साल से छोटे बच्चों को काम पर भेजना गुनाह है. क्या तुम लोग जेल जाना चाहते हो ?.....
ऐसी ही कई बातें सोचता हुआ मैं सोसायटी के गेट पर पहुंचता ही हूं कि मिसेज मारिया की  कड़कती आवाज़ कानों को चीर जाती है. त्योरियां चढ़ाए वह लक्ष्मी पर बरस रही है- ये झाड़ू लगाई है ? हाथों में जान तो है ही नहीं. नहीं करना तो छोड़ क्यों नहीं देती ? इस चक्कर में मत रहना कि एक तू ही अकेली बाई है. तेरे जैसी दिन में तीन सौ साठ घूमती हैं, समझी ? तीन दिन बाद आई है महारानी. मां घर में थी नहीं. उड़ा रही होगी गुलछर्रे !

 बलि के बकरे सी सिर झुकाए लक्ष्मी सुन रही है. पा रही है सज़ा उस अपराध की, जो उसने किया ही नहीं  .......
ऊपर देखता हूं- पहले माले की मिसेज सिन्हा, दूसरे माले की मिसेज नायर व तीसरे माले की मिसेज डिसूजा कमर पर हाथ टिकाए हंस रही हैं. बेताब हो रही हैं 'मक्कार बाई' से निपटने को. कर रही हैं इंतज़ार कि कब मिसेज मारिया फिनिश करें और कब उनकी बारी आए ? कब वे तीन दिनों का अपना-अपना हिसाब चुकता करें  ?

अपराधी की तरह सिर झुकाए खड़ी, थर-थर कांपती बीमार लक्ष्मी की आंखों से टप-टप आंसू टपक रहे हैं. थका हुआ उसका मुरझाया चेहरा बिल्कुल पीला पड़ गया है. तीन चार दिनों में ही कितनी हार गई है ! लगता है ज्यादा देर तक खड़ी नहीं रह पाएगी वह. मुंह में चुन्नी का पल्लू ठूंस लिया है उसने, ताकि सिसकने की आवाज़ किसी और के कानों तक न पहुंच सके. जी हां. वह खुल कर रो भी नहीं सकती.

-----और मैं ! मैं जो कहानी की तलाश में सुबह घर से निकला था, खाली हाथ लौट आया हूं. कहानी के लिए कोई प्लॉट नहीं मिला. मुझे इसका अफसोस है.

लेकिन इससे भी ज़्यादा परेशान मैं लक्ष्मी को लेकर हूं. पीढ़ी दर पीढ़ी उसके सिर्फ नाम ही बदलते रहे हैं. लेकिन जिस खूबसूरत मोड़ का इंतज़ार इन लक्ष्मियों की कहानी में है, वह मोड़ आखिर कब आएगा ?


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