गोलियों से बिंध कर भी
शांति के कपोत श्वेत
उड़ते ही जाते हैं ।
शिखरों के तापमान
कटुता के कीर्तिमान
बढते ही जाते हैं
।
गरिमा के परदे पर
लघिमा के वृत्त चित्र
छपते ही जाते
हैं ।
हतप्रभ से नौजवान
ठिठके से दिवसमान
थकते ही जाते हैं ।
कल तक जो रोशन थे
आज वही अग्नि पुंज
बुझते ही जाते हैं ।
दौलत के उपवन मे
निर्धन से मरुद्यान
उगते ही जाते हैं ।
आशा के क्षितिज पर
निराशा के कृष्ण मेघ
घिरते ही जाते हैं ।
लालिमा के आंचल मे
मुंह छिपाए दीप्तिमान
ढलते ही जाते हैं
।
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