चुनाव चिन्हों का चुनाव

                         
                  कोई ज्‍यादा वक्‍त नहीं बीता कि जब चुनाव चिह्नों का कुछ मतलब हुआ करता था।
अब जैसे एक चिह्न हैं हंसिया और बाली सुनते हैं कि हंसिया हिंदुस्‍तान के मेहनतकश किसान का प्रतीक था और बाली दर्शाती थी उस मेहनत का फल ।
                  लेकिन वक्‍त तो बदलता ही रहता है, रुका तो रहता नहीं । शब्‍दों और चुनाव चिह्नों के अर्थ भी चूंकि वक्‍त से जुड़े हैं, इसलिए उनका बदल जाना भी लाजिमी है । इस हिसाब से हंसिये का नया अर्थ है वह औजार जिससे मेहनतकश किसानों के गले रेते जाते हैं । बाली का नया मतलब है जमीन, जो किसान के खात्‍मे के बाद सेजें बनाकर इजारेदारों को बाअदब, पेशे नजर की जाए ।
                  इसी निशान की कोख फाड़कर एक और निशान ने भारतीय लोकतंत्र में अवतार लिया । यह निशान है लाल झंडे पर बना हंसिया और हथौड़ा । इसमें हंसिये का मतलब तो था गांवों खेतों में काम करता किसान, जबकि हथौड़ा बाहरी मजदूरों का प्रतीक था । यानी दावा यह किया गया कि हमें उस  हर शख्‍स की फिक्र है जो मेहनतकश है, चाहे वह खेत में हो या कारखाने में । झंडे का लाल रंग खूनी क्रान्ति का संकेत था । याने जब तक शोषक और शोषितों में खूनी जंग नहीं होगी तब तक नई सर्वहारा की सरकार नहीं बन सकती ।
कुछ जाने पहचाने चुनाव चिन्ह (बीबीसी से साभार) 
                  बहाया मजदूरों ने खून । विद्रोह किया बंधुआ खेत किसानों नें । पहुंचाया इन निशानों को सरकार में । लेकिन इस चुनाव निशान का अर्थ भी वक्‍त के साथ बदल गया। अब लाल रंग का मतलब है उन किसानों का खून, जो जमीनें नहीं दे रहे हैं । हंसिये का मतलब तो ऊपर वाले हंसिये जैसा ही है । यानी किसान की गरदन रेतना । और हथौड़े का मतलब है उस औजार से, जो किसान के ता‍बूत पर आखिरी कील ठोंकने के काम आता है ।                                                                                   
                 एक ऐसा ही चुनाव चिह्न और याद आ गया । यह चिह्न है हाथ । कहते हैं किसी जमाने में यह हमेशा गरीब के साथ रहता था । इसी हाथ ने किसान विकास पत्र जारी किये । इसी ने मजदूरों के श्रम कानूनों में जरुरी बदलाव किये । इसी हाथ ने फसलों के समर्थन मूल्‍य तय किये, फसल की सरकारी खरीद शुरु की । कारखानों में काम करने वाले मजदूरों का बीमा शुरु कराया वगैरा--वगैरा ।
                  और आज देखिये यह हाथ किसानों पर कहर बन कर टूट रहा है । यही हाथ उन्‍हें कीटनाशकों की बोतलें पिला रहा है । यही हाथ किसानों का कान पकड़ कर उन्‍हें खेतों से बेदखल कर रहा है । यही हाथ मजदूरों की हड़ताल को गैर कानूनी करार देता है। यह हाथ अब लेन देन करता है । पहले सिर्फ देता था । उन्‍हें, जिनके पास नहीं  था। अब यह सिर्फ लेता है । उनसे जो दे सकते हैं । बदले में देता है उन्‍हें । क्‍या क्‍या देता है? बहुत कुछ देता है । जैसे टैक्‍स चोरी की छूट, हजारों करोड़ के बैंक कर्जें हड़प जाने की छूट, मजदूरों को मर्जी से नौकरी से निकालने की छूट, देश के प्राकृतिक संसाधनों खानों, जंगलों नदियों वगैरह को खूब लूटने की छूट ।
                  लालटेन के बारे में क्‍या कहूं ? जब तक पटने में रहे, लालटेन की जरुरत पड़ती रही । अंधेरा काफी था न बिहार में । कोई तो होना चाहिए था जो अंधकार से प्रकाश की ले जाता । सो ललटनिया की जरुरत बनाये रहे । अंधेरा किये रहे ।
                  मगर फिर वक्‍त बदला । लालटेन ने भी अर्थ बदला । बल्कि कहना चाहिए अर्थ बदले । एक अर्थ हुआ हमारे दस लाल हैं । उनके भी कम से कम दस लाल तो मान कर चलिए ही । इस तरह सौ पोतों का भरा पूरा परिवार दूसरी पीढ़ी में ही नजर आयेगा। इन्‍हें पढ़ाने के लिए लालटेन तो जरुर होनी चाहिए ।
                  दूसरा अर्थ ये है कि लालटेन हमेशा दूसरों को दिखाने के लिए होती है । अपने घर में चाहे लाख अंधेरा हो तब भी इसका प्रयोग निजी काम में मत करो । दूसरों को जरुरत न हो, तब भी दिखाते रहो । बकौल बशीर बद्र - उजाले  अपनी यादों केे हमारे साथ रहने दो  । न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए ।
                  घड़ी नामक चुनाव निशान भी आपने देखा होगा । पता नहीं चुनाव आयोग ने क्‍या सोचकर यह निशान दिया होगा । एक वजह यह हो सकती है कि नेता लोग जरा वक्‍त की अहमियत समझें । वक्‍त से खाना, वक्‍त से पीना व वक्‍त से खेलना सीखें । मगर बुरा हो इस वक्‍त का । घड़ी का भी अर्थ गिरगिट के रंग की तरह बदल गया । अब ये घड़ी ऐन वक्‍त पर प्‍याज के भाव गिरा देती है । अगली ही घड़ी यह चीनी व गेहूं का आयात करने लगती है ज‍बकि मंडियों में काफी गेहूं बिक्री के लिए पड़ा है । जबकि करोड़ों टन गन्‍ना खेतों व मिलों मे पड़ा है । मगर पेराई नहीं की जा रही है । कपास खरीदने के बजाय आयात की जा रही है । आखिर क्‍यों ? इस क्‍यों का जवाब देने के लिए हमारे स्‍टूडियो में मौजूद नहीं है घड़ी ।

अब सुनने में आया है कि इस घड़ी का इस्‍तेमाल किसानों की मौत की घड़ी तय करने में होता है ।

                  सबसे दयनीय हालत किसी चुनाव निशान की है तो वह हाथी की है । आपने देश की दीवारों पर एक मरियल से भैंस के कटड़े का चित्र देखा होगा । फर्क ये है कि इस कटड़े की सूंड भी है । इस नामामूल सूंड का ही तकाजा है कि इस जंतु को हाथी कहना पड़ता है । वरना अंधा भी जानता है कि हाथी तो दूर की बात है, इसे पिल्‍ला कहने में भी शर्म आती है । हाथी का ऐसा असहाय, ऐसा गरीब, ऐसा गया बीता एडीशन मैंने पहले कभी नहीं देखा था । जंगल का सबसे मस्‍त, सबसे बिंदास, सबसे विशाल आकार, इतनी बेबस, इतनी थकी हालत में  पहली बार नजर आया । लगता है इसे बनाने वाले पेंटर ने हाथी सिर्फ सर्कस में ही देखे थे  । कई लोगों को यह भी लगता होगा कि ऐसा हाथी चित्रकार ने गलती से बनाया होगा । मगर ऐसा नहीं है । ये इस टाइप का हाथी जान बूझकर बनाया गया है । एक पोस्‍टर में कुमारी जी की विराट देह मरियल हाथी पर चढ़ी है । जबकि हाथी लगता है अब गिरा, तब गिरा । इसका अर्थ यही है कि चुनाव निशान हम से है । हम चुनाव चिह्न से नहीं । फिर वे चुनाव निशान चाहे शेर, हाथी, हाथ घड़ी कुछ भी होंं  । चुनाव निशान साइकिल की व्‍यथा इससे ठीक उल्‍टी है । शुरु शुरु में यह वाकई सवारी लगती थी । मुलायम शरीर भी इस पर भारी पड़ता था । उन दिनों सवार के नीचे दबी यह सवारी ऐसे लगती थी जैसे गणेश जी अपने वाहन चूहे पर सवार हों ।
                  मगर वक्‍त ने पलटा खाया । आज आलम यह है कि साइकिल का आकार विराट रुप ले चुका है । और इस पर जो महाशय सवार थे अब सख्‍त चमड़ी, दुबली पतली देह, धोती, जवाहर कट पहने, पसीने से तर बतर खींचे जा रहे हैं इसे । मगर यह खिंचकर नहीं देती । साइकिल चला न पाने की पीड़ा सवार के चेहरे पर साफ झलकती है । जबकि कैरियल पर भारी भरकम शेर, व हैंडल की टोकरी में एक गुड्डी  भी आकर बैठ गये हैं । लगता है अगले पहिए में हवा की कमी है व पिछला पहिया पंचर हो गया है ।
                  अर्थ परिवर्तन की आंधी में जब अच्‍छे अच्‍छे उखड़ गये तो बेचारे कमल की क्‍या बिसात थी ? बताते हैं शुरुआती दौर में ये फूल स्‍वच्‍छता का प्रतीक था । कीचड़ में पैदा हो कर भी कीचड़ में नहीं लिटता था । इस की पंखुड़िया हर हाल में साफ, सुथरी, एक दम तरोताजा दिखाई पड़ती रहीं । कीचड़ नीचे जड़ में रहा हो तो अलग बात‍ है । पंखुड़ियों पर नहीं था ।  ये वो फूल है जिस पर हमारे विष्‍णु भगवान की पत्‍नी व धन की देवी लक्ष्‍मी भी निवास करती आ रही थीं । और लक्ष्‍मी जी बोले तो सारी भारतीय संस्‍कृति  उसमें आ जाती थी । जैसे वेद, पुराण, उपनिषद, संस्‍कार, आस्‍था वगैरा वगैरा ।
                  और वक्‍त बीतने के साथ कमल ने भी रंग बदलना चालू कर दिया । इसकी पंखुड़ियों से अयोध्‍या में मारे गये राम भक्‍तों का खून रिसने लगा । संस्‍कारों की बातें करके, अश्‍लील, हिंसक, फूहड़ विदेशी चैनलों को लाने के साथ ही कमल का दोगलापन नजर आने लगा । दोगले पन से मतलब कि दीखने में ये कमल असली का लगता था, मगर था नकली । संस्‍कार छू मंतर हो गये । अब लक्ष्‍मी जी का हाल देखिये । स्‍वदेशी की तो की गई बातें । और न्‍यौता दिया गया विदेशी अमीरों को । कि आओ । चिप्‍स बनाओ । सड़े गले पानी को हम रोज छनवाते हैं । उस पानी से कोक बनाओ । खुद माल पियो, हमारे लोगों को जहर पिलाओ । पहले भी चरबी के कारतूस तुमने हमारे पुरखों से चटवाये थे । अब वही पुरानी कहानी नये परदे पर फिर से दिखाओ । हमारी जेबें गरम रहती हैं तो हमारी आंखे अपने आप मुंद जाती है । तो हमारी आंखें मूंदने का इंतज़ाम करो ।
                  फिर नंबर लगा सरकारी कंपनियां बेचने का । कारखाने बिकने लगे । रुपये की चीज कौड़ियों में नीलाम हुई । पार्टी को मोटी रिश्‍वतें चंदे के लिफाफे में डाल कर देने वालों के पौ बारह हुए । मजा आ गया । दो हजार करोड़ का बाल्‍को पांच सौ करोड़ में लखा दिया । वाह रे मेरे स्‍वदेशी ?
                  कमल पर बैठी लक्ष्‍मी किनके लिए थी यह राज खुल गया । मुखौटों के पीछे छिपी क्रूर शक्‍लें बेनकाब हो गई । करोड़ों जुबानों से निकला हे राम तुम्‍हारे लोगों ने जीना हराम कर डाला है ।
                  अब जब न कमल की कोमलता रही, न पवित्रता रही, न स्‍वदेशीपन रहा, न कमल की नाल पर चिपका कीचड़ ह‍टा, तो पब्लिक क्‍या पागल थी, जो फिर भी उसे छाती से लगाये रखती ? काठ की हंडिया आखिर कितनी बार चढ़ती चूल्‍हे पर ?  
                  नतीजा सामने है । धूल धूसारित कमल, कीचड़ से सना, पड़ा है चौराहे पर । अब तो कमल को एक ही उम्‍मीद है कि गुलाबी शहर से शेर पर चढ़ कर वसुंधरा देवी आये । सारे देवता इन्‍क्‍लूडिंग ब्रहमा, विष्‍णु महेश स्‍तुति करें । अपनी आठों भुजाओं का देवी एक बार फिर हुनर दिखावें । ताकि हम देवता असुरों आदि द्वारा छीना हुआ स्‍वर्ग फिर वापस ले सकें । कमल का रोल खत्‍म । खिले तो खिले वरना सोचें कुछ और ।
                  आशा है देवी जी कमल को उठाकर, धो-धाकर, एक बार फिर मार्केट में (चुनावी मार्केट) में उतरेंगी ।
( इस व्यंग्य के लिखे जाने के बाद कमल का धूल धूसरित फूल प्रचंड बहुमत से वापस लौट आया है. इस कमल पर विराजमान ब्रह्मा जी अब सीरियस लगते हैं . कई सालों की कीचड़  साफ करने का संकल्प लेकर उतर गए हैं कीचड़ के तालाब में. ) 

Share on Google Plus

डॉ. दिनेश चंद्र थपलियाल

I like to write on cultural, social and literary issues.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें