शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

लॉक डाउन पर चिंतन



      मार्च 2020  के  अंतिम सप्ताह से आज 18 अप्रैल 2020 तक भारत की लगभग एक अरब आबादी लॉक डाउन मे है. कोरोना वायरस छूने से फैलता है इसलिए लाकडाउन लागू किया गया ताकि संक्रमित व्यक्ति  से यह वायरस स्वस्थ व्यक्ति तक न पहुंच सके.
               यह वायरस क्योंकि श्वास के साथ भी तीन चार फीट तक हवा मे जा सकता है अत: हिदायत दी गई कि लोग आपस में कम से कम 10 फीट की दूरी बना कर रखें. इस वायरस का साइज़ एक मिलीमीटर का भी हजारवां हिस्सा है. किसी विषाणु का साइज़ 20 माइक्रॉन से लेकर 70 माइक्रॉन तक हो सकता है. इतने छोटे वायरस को सांस के जरिये शरीर  मे जाने से रोकने के लिए ऐसे मास्क की जरूरत होगी जो हवा मे स्थित  20 माइक्रॉन या उससे बड़े साइज़ की चीज़ों को बाहर ही फिल्टर कर ले, उन्हे शरीर के भीतर न जाने दे. ऐसे मास्क को क्लीनिकल मास्क कहा गया है. ये मास्क खास तौर पर चिकित्सा से जुड़े लोगों के लिए हैं क्योंकि वे लोग सीधे सीधे संक्रमित व्यक्ति के संपर्क मे आते हैं.
               बाकी लोग दूसरे मास्कों का भी प्रयोग कर सकते हैं. यहां तक कि जैसा हमारे प्रधान मंत्री जी ने सुझाव दिया है- घर मे उपलब्ध किसी साफ महीन कपड़े की दो चार तह करके भी मुंह नाक को ढक सकते हैं. हमारे भारत के अधिकांश घरों मे गमछा या रूमाल या चादर तो प्रयोग होते ही हैं. उनसे भी काफी हद तक मास्क की जरूरत पूरी की जा सकती है.
               कुछ लोगों ने प्रधान मंत्री जी के जनता कर्फ्यू के बाद थाली, घंटी या शंख बजाने की आलोचना की थी. लेकिन जब तक वैज्ञानिक आधार पर हम किसी  तथ्य को गलत साबित नही  कर देते  तब तक हमे उसकी आलोचना करने का भी नैतिक अधिकार नही है. ऊर्जा का एक स्वरूप ध्वनि भी है. यह ऊर्जा भी वायरस की भांति सूक्ष्म कणों के जरिये एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाती है. यदि उस बीच के अंतराल मे कोई घातक विषाणु मौजूद है तो बहुत संभव है कि इस ध्वनि ऊर्जा से वह वायरस  नष्ट होता हो. जहां तक शंख ध्वनि का सवाल है – यह सिद्ध किया जा चुका है कि शंख से उत्पन्न ध्वनि वायुमंडल के विषाणुओं को नष्ट करने मे सक्षम है. श्रव्य ध्वनि की आवृत्ति 20 हर्ट्ज़ से लेकर 20000 हर्ट्ज़ है. इस बीच कौन सी आवृत्ति विषाणुओं पर घातक प्रभाव डाल सकती है यह कहना मुश्किल है. यह शोध का विषय है.

          दूसरी बार एक सप्ताह के लॉकडाउन के बाद प्रधान मंत्री जी ने आग्रह किया था कि रात्रि ठीक नौ बजे लोग घरों के बाहर दीपक या मोमबत्ती जलाएं. यह न हो सके तो मोबाइल टॉर्च ही जलाएं तथा घर की बिजली बंद कर दें. देश की जनता ने इस आग्रह का भी उत्साह से समर्थन किया. ऐसा लग रहा था मानो दीपावली का त्योहार मनाया जा रहा हो.

             इस अपील मे भी ऊर्जा के अन्य स्वरूप “प्रकाश”  का समावेश है. प्रकाश भी अनेक तरंग समूहों के सम्मिलित ऊर्जा प्रवाह  का नाम है. संध्या काल से रात्रि के पहले पहर के बीच ही विषाणुओं का हमला सबसे अधिक होता है. इस बीच तापक्रम न दिन की तरह गर्म होता है न रात की तरह  ठंडा. अत: अपने अनुकूल तापमान पर विषाणु की सक्रियता चरम पर रहती है. ऐसे समय मे प्रकाश ऊर्जा की उपस्थिति विषाणुओं की सक्रियता मे बाधा पहुंचाती है. मानवीय हलचल व अवांछित प्रकाश ऊर्जा से उनका कार्यक्रम अस्त व्यस्त हो जाता है.

             यह तो हुआ वैज्ञानिक  विवेचन. लेकिन इन घटनाओं का मनोवैज्ञानिक आधार भी है. मंत्रशक्ति का प्रभाव आज भी अनेक लोगों ने देखा होगा. मंत्र भी तो मानसिक शक्तियों के भौतिकीय प्रयोग का ही नाम है. मन की संकल्प शक्ति जब यंत्र (ध्वनि या प्रकाश उत्पन्न करने ) से जुड़ जाती है तो वांछित परिणाम मिलना संभव है. वांछित परिणाम अर्थात शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति का संकल्प शक्ति द्वारा बढ जाना.

          तो किसी भी बात का मजाक उड़ाना बहुत आसान होता है किंतु उस बात को असत्य सिद्ध करना आसान नहीं होता. और बगैर सिद्ध किये किसी तथ्य के निष्कर्ष तक पहुंच जाना क्या उचित है ?

            इस लॉकडाउन के और भी बहुत से फायदे हुए हैं. महानगरों का जीवन तो बड़ा ही विचित्र था. सुबह पति पत्नी ड्यूटी पर निकल जाते हैं. बच्चे स्कूल चले जाते हैं. शाम को जब तक पति घर पहुंचते हैं बच्चे सो चुके होते हैं. तो एक छत के नीचे रहते हुए भी सब सदस्य अलग अलग जीवन जीते हैं. लॉकडाउन मे पति पत्नी बच्चे दादा दादी (यदि साथ रहते हैं तो ) सभी साथ साथ उठते हैं साथ साथ नाश्ता, लंच तथा डिनर करते हैं. एक दूसरे से अपनी बात शेयर करते हैं. इससे इमोशनल बोंडिंग मजबूत होती है. सोशल डिस्टेंसिंग से घाटा तो इतना नहीं हुआ हां भावनात्मक जुड़ाव जरूर बढ़ा. परिवार के सदस्यों को एक दूसरे से भावनात्मक स्तर पर और करीब आने का, एक दूसरे को समझने का मौका मिला. क्या यह बड़ी उपलब्धि नहीं है ?

                   एक और फायदा. हमे सादगी से जीने की आदत पड़ी. कम से कम बजट मे भी हम कैसे काम चला सकते हैं यह सीखा. अनावश्यक भोज्य पदार्थों की जगह आवश्यक चीजों रोटी सब्ज़ी, दाल चावल से भी कंप्लीट डाइट ली जा सकती है – यह सीखा. मैक्रोनी, नूडल्स, बर्गर सैंडविच जैसे  फास्ट व जंक फूड्स सिर्फ सेहत और जेब ढीली करते हैं- यह जाना. घर का सादा खाना ही पूर्ण संतुष्टि दे सकता है- यह पता चला. शाकाहारी भोजन ही सर्वश्रेष्ठ होता है, यह शारीरिक तथा मानसिक  जरूरतों को पूरा करने के लिए काफी है- यह जाना. मांसाहार से पैदा होने वाले गुस्से से बचे हम. किसी बेकसूर जीव की हत्या रुकी. हत्या के बाद बेकार हुए जीव के शरीर के हिस्सों से जो मिट्टी, जल तथा वायु प्रदूषण फैलता था उससे बचे. बीमार पशुओं के मांस के सेवन से जो घातक विषाणु हमे बीमार करते थे, उनसे बचाव हुआ. अनावश्यक खर्चे जैसे शॉपिंग, होटल, सिनेमा आदि खत्म हो गए. हमे पता चला कि सादा जीवन व स्वच्छ विचार ही सुखी व शांत जीवन का आधार हैं. बेकार की भागम भाग हमे डिस्टर्ब ही करती है. फायदा तो क्या देगी- यह भी जाना.


           एक और फायदा. लॉकडाउन मे सभी निजी डॉक्टरो के क्लीनिक बंद थे. जरा सी छींक या बुखार आते ही हम डॉक्टरों के पास भागते थे. डॉक्टर भी दुनिया भर के टेस्ट लिख कर हमारा बजट बिगाड़ते तथा अपना कमीशन व अपनी फीस सुनिश्चित करते. दवाइयों का खर्चा सो अलग. लेकिन एक महीना होने को है. मै अपने घर व आस पड़ोस मे देख रहा हूं. कहीं भी किसी को भी ऐसी आपात स्थिति का सामना नही करना पड़ा कि फौरन अस्पताल जाना पड़ा हो.

            तो इसका क्या मतलब निकला ? बीमारियों का असली कारण रोग नही मानसिक कमजोरी थी. एक आदत पड़ गई थी कि कुछ हुआ तो डॉक्टर तो हैं न! और डॉक्टर भी पहुंचे हुए  मनोवैज्ञानिक  होते  हैं. वे हमारी मनोदशा को भली प्रकार भांपते हुए हमारा तसल्लीबख्श इलाज कर देते हैं.

                 इस एक महीने मे हमने देखा कि दवाइयां भी नहीं लीं तब भी हमे कुछ नही हुआ. मतलब कि हमारा शरीर आत्मरक्षात्मक प्रणाली पर चलता है. एक कहावत है न जिसका कोई नही उसका खुदा है यारो. रहीम दास जी का भी एक दोहा है-

                                    रहिमन बहु भेषज करत व्याधि न छांड़त साथ ।
                                    खग मृग बसत अरोग वन हरि अनाथ के नाथ ॥

        अर्थात रहीम दास जी कहते हैं कि बहुत चिकित्सा करने पर भी बीमारी हमारा साथ नही छोड़ती. जबकि पशु पक्षी जंगल मे रहते हुए भी निरोग रहते हैं. तो हरि (ईश्वर) की अनाथों के नाथ(रक्षक) होते हैं.

                तो बीमारियों का मूल संबंध हमारे मन से है. जब हम मान लेते हैं कि हमे सिर्फ डॉक्तर ही बचा सकता है तो फिर डॉक्तर ही बचा सकेगा. और जब हम मानते हैं कि जिसने रोग दिया है  आरोग्य भी वही देगा तो फिर जरूर देगा. आपकी आस्था दृढ़ होनी चाहिए. आस्था यानी मन की शक्ति.

                फिर भी छोटी मोटी बीमारियों के लिए तो हमारा आयुर्वेद ही काफी है. इम्यूनिटी यानी रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाने के लिए हमारी रसोई मे ही कई चीजें मौजूद हैं. हल्दी अदरख, लहसुन अजवाइन जीरा सौंफ, लौं, कालीमिर्च, हींग, मेथी इलायचीऔर प्याज  सिर्फ मसाले नही हैं. ये सभी आयुर्वेद के नायाब नगीने हैं. कौन सी  ऐसी बीमारी है जो इनके नियमित प्रयोग से ठीक न हो सके ? फिर हर मौसम मे कुछ फल भी यह प्रकृति देती है. ये फल नहीं बल्कि उस मौसम मे होने वाली बीमारियों  की दवाइयां होती हैं. जैसे आजकल आंवला है. सभी जानते हैं कि यह विटामिन सी तथा आयरन का समृद्ध स्रोत है. ये हमारी रोग प्रतिरोधक शक्ति को बहुत बढ़ाता  है. इसी तरह आजकल गिलोय भी हरी हो गई है. यह वात पित्त तथा कफ नाशक है. इसमे विषाणुओं को नष्ट करने की भी बहुत क्षमता है. आयुर्वेद मे इसे कटु त्रिदोष नाशक जंतुघ्न, व ज्वर नाशक माना गया है. अत: गिलोय और आंवले का रस हर मौसमी बीमारी को ठीक करने के लिए काफी है.  कागज़ी नींबू भी आंवले जैसा ही काम करता है.



आंवला 
गिलोय 

          
                   ये बातें पढ़ कर कई लोग तो मन ही मन हंस रहे होंगे. सोच रहे होंगे कि जरा सा ब्लॉग शुरू कर दिया कि वैद्य बन बैठे. हां भई! बात भी सही है. अरबों डॉलर के मेडीसिन के सालाना कारोबार  मे ऐसी मुफ्त की बात करने मे हंसी ही तो आएगी.

        लेकिन मै आपको इतना ही कह सकता हूं कि आप एक सप्ताह लगातार आजमा कर देखें बस ! प्रत्यक्ष को प्रमाण की जरूरत न पड़ेगी.
  
          लॉकडाउन की कृपा से बच्चों को भी थोपे हुए शिक्षा के बोझ से कुछ वक्त के लिए मुक्ति मिली. वे अपने ढंग से टीवी या कंप्यूटर  या मोबाइल पर ऑनलाइन पढ़ाई कर सके. प्रौद्योगिकी के अनेक अनछुए पहलुओं से बच्चे परिचित हुए. एक नई अनुभूति हुई. भय और दहशत मुक्त अध्ययन का स्वाद मालूम हुआ. अनावश्यक होमवर्क से जान बची. अनावश्यक किताबों की खरीद बंद हुई और ऑन लाइन माध्यमों से किताबें डाउनलोड हुईं. हां. आउटडोर खेलकूद से बच्चे जरूर वंचित रहे.  पर यह तो अल्पकालीन समस्या थी. स्कूल खुलते ही दूर हो जाएगी.
              सबसे ज्यादा राहत तो घर के कमाने वाले सदस्य को मिली. सरकारी कर्मचारियों को यह मालूम चला कि उनके वेतन का एक बड़ा  हिस्सा गैर जरूरी   खरीद  मे खर्च होता था. स्वस्थ जीवन के लिए सादा भोजन जो निहायत जरूरी है  उस पर तो बहुत कम खर्च होता था. तो यह गैर जरूरी खर्चे जब बच गए तो एक नई दृष्टि मिली कि घर के बजट को कैसे वेतन की धनराशि से आराम से चलाया जा सकता है.  

            दूसरे बैंकों से जो हाउस लोन, प्रॉपर्टी लोन गाडीयों के लोन या एजूकेशन लोन चल रहे थे उन्हें तत्काल भुगतान न करने से भी राहत मिली. 180 दिन का समय रिजर्व बैंक ने भुगतान के लिए दे दिया ताकि लिया हुआ लोन एनपीए  न बन सके.

              किसानों और दिहाड़ी मजदूरों मे से जो जन धन खाते वाले थे उनके खातों मे भले ही थोड़े लेकिन पैसे आये जरूर. जो असंगठित थे उन्हे सरकारों व गैर सरकारी स्वैच्छिक संगठनो ने भोजन के पैकेट बांटे. कुछ सिख संगठनों व अन्य संस्थाओं ने लंगर व रसोई की व्यवस्था की ताकि कोई भी आदमी भूखा न रहे. बाहर राज्यों मे फंसे छात्रों व अन्य तीर्थ यात्री आदि लोगों को राज्यों ने बस सेवा उपलब्ध कराई ताकि वे सुरक्षित घर पहुंच सकें.

                लेकिन महानगरों मे हजारों लाखों की संख्या मे फंसे मजदूरों को उनके घर भेजने की व्यवस्था न केंद्र सरकार और न राज्य सरकारों ने की. ऐसे दोहरे  मापदंड समाज मे कटुता और वैमनस्य ही बढ़ाएंगे. ऐसे अमानवीय भेदभाव अंग्रेज करते तो समझ मे आ जाता पर जब आज़ाद देश की अपनी सरकारें ऐसा घृणित फर्क अमीर और गरीब के बीच करें तो बहुत दुख होता है. इस भेदभाव के गंभीर नतीजे निकलना तय है.

                  दूसरी बात कि मुस्लिम जमात के लोगों से जो बीमारी फैली या फैलाई गई उसके लिए किसी मजहब को ही दोषी मानते हुए कार्रवाई करना भी विकृत मानसिकता का परिचायक है. किसी भी समस्या को कई तरीकों से हल किया जा सकता है.

                       धर्म आधारित देश एक न एक दिन अंतर्विरोधों के चलते विघटित होते ही हैं.मान लीजिए भारत हिंदू राष्ट्र बन जाता है तो क्या हिंदुत्व का कोई कोड मैनुअल है कि हर हिंदू उसे ही माने. तैंतीस करोड़ देवी देवताओं वाले धर्म मे कॉमन हिंदू धर्म बनाना बहुत मुश्किल होगा. फिर आपस मे लड़ाई होगी. तू वैष्णव मै शाक्त,  मै देवी का उपासक,  मै आर्यसमाजी,  मै सनातनी वगैरह वगैरह. एक अंतहीन अंतर्संघर्ष की राह फिर खुल जाएगी. इससे अच्छा है कि सभी धर्मों को नियंत्रित करते हुए सामाजिक व्यवस्था तथा लोकतांत्रिक स्थापनाओं का सम्मान करते हुए निजी आस्थाएं मानते हुए उन्हे स्वतंत्र रहने दें . जहां कोई धर्म लोकतंत्र की अवधारणाओं का उल्लंघन करने लगे वहीं उसके पर कतर दिये जाएं. यदि कोई धर्म सोची समझी साजिश के तहत आबादी बढ़ा  कर राजनीतिक लाभ लेता दिखे वहीं कानून बना कर आबादी को नियंत्रित किया जाए. सार्वजनिक स्थलों पर धार्मिक काम करने की आज़ादी न दी जाए. 

         धर्म नागरिक की व्यक्तिगत आस्था ही रहे तो ठीक है. उसका सामाजिक स्वरूप ही समस्याएं पैदा करता है. देश मे एक कानून हो. धर्म आधारित कानून व मान्यताएं खत्म हों. 

           किसी भी तरह का आरक्षण समाज मे जहर घोलता है. ऐसे आरक्षण योग्य प्रतिभाओं को विकसित नही होने देते, किसी भी सभ्य व लोकतांत्रिक देश मे आरक्षण जैसी व्यवस्थाएं नहीं होतीं. आरक्षण को अब लोग अधिकार समझ बैठे हैं जबकि  यह एक अवसर था जो सीमित अवधि के लिए समानता पैदा करने के लिए सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों को दिया गया था. केंद्र , राज्यो तथा उद्योग जगत मे आरक्षित वर्ग के कई लोग आरक्षण का लाभ पाकर समर्थ बन गए हैं किंतु तब भी वह आरक्षण का लाभ लेना बंद नही करते. क्या यह सामाजिक असमानता तथा अंतर्जातीय विद्वेष पैदा नहीं करेगा ?  मुफ्त का चंदन घिस मेरे नंदन वाली बात है. 

                जब राजनीतिक पार्टियों ने अपने निजी लाभ के लिए समाज मे जहरीले बीज बो दिये हैं तो उन्हे किसी न किसी को तो काटना ही पड़ेगा ! ये सुविधाएं लोगों का आत्म सम्मान खरीद कर उन्हे अपहिज बना देती हैंं. मै ऐसे कुछ लोगों को जानता हूं जिन्होने सर्विस के दौरान पदोन्नति मे आरक्षण का लाभ नही लिया. खुद अपनी योग्यता से ऊपर तक पहुंचे. उन्होने अपने आत्मसम्मान का सौदा नही किया. क्योंकि वे कंपीटेट थे.  
आज के लिए बस इतना ही     ( क्रमश:)   



2 टिप्‍पणियां:

  1. धन्यवाद कंडवाल साहब, आपकी प्रतिक्रिया मेरा मार्गदर्शन करेगी . आपका ही दिनेश थपलियाल

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