नौ नवम्बर,
2016 को उत्तराखंड राज्य ने सोलहवां वर्ष पूरा किया । सोलह वर्ष की अवधि कम नहीं
होती । इतने समय में तो आम का छोटा सा
पौधा पूरा वृक्ष बन कर भरपूर फल देने लगता है । एक शिशु पूर्ण विकसित होकर
किशोरावस्था में आ जाता है, तथा हाई स्कूल की परीक्षा पास कर लेता है ।
और भी बहुत कुछ हो जाता है सोलह वर्षों के अंतराल में ।
लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि सोलह वर्ष की
यह अवधि उत्तराखंड के हमारे राजनेताओं को बहुत कम प्रतीत हुई है । इसमें किसी को
भी आपत्ति नहीं होगी कि सन 2016 में हमें जहां होना चाहिए था- हम वहां कतई नहीं
हैं ।
प्रश्न यह है कि नए राज्य की जरूरत ही क्या
थी ? क्यों लगा यहां के लोगों को कि हमारा अपना
अलग राज्य होना चाहिए ? क्या उत्तर प्रदेश में हम अवसरों से वंचित थे ? क्या हमारी भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप विकास नहीं
हो पा रहा था ? क्या बड़े
राज्य में होने के कारण हमारी भाषाओं,
संस्कृतियों को उचित संरक्षण नहीं मिल रहा था ?
क्या रोजगार के अवसर तब कम थे ? क्या औद्योगिक विकास के मैदानी मॉडल यहां
की पर्वतीय परिस्थितियों से मेल नहीं खा रहे थे ?
क्या हम अपना विकास अपने ढंग से नहीं कर पा रहे थे ? क्या उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र को मिलने वाला पैसा
जरूरतों के हिसाब से काफी नहीं था ? क्या वह पैसा
सैफई के खेल मैदानों को विकसित करने में लग रहा
था ?
ऐसे बहुतसे अन्य कारण भी रहे होंगे, जिन्होने जन मानस को अलग राज्य पाने के लिए बाध्य किया होगा ।
कितने ही नौजवानों की बलि लेकर अंतत: अलग
उत्तराखंड राज्य बन गया । मातृशक्ति की अद्भुत एकजुटता ने हुक्मरानों को अलग राज्य
के गठन पर सोचने पर बाध्य किया । सरकारी
कर्मचारियों,
वकीलों, शिक्षकों,
विद्यार्थियों, श्रमिक संगठनों तथा आम जनमानस ने अलग राज्य के आंदोलन में अपना तन मन धन झोंक
दिया. अंतत: केंद्र सरकार को अलग राज्य का प्रस्ताव पास करना ही पड़ा और यह नवजात
राज्य-शिशु आज के ही दिन सन 2000 को स्वतंत्र अस्तित्व के रूप में अवतीर्ण हो गया
।
सन 2000 के बाद जो बच्चे उत्तराखंड में
जन्मे, वे कल्पना भी नहीं कर सकते कि नया राज्य
बनने से यहां के लोगों को कितनी खुशी हुई थी ! भले ही निहित राजनीतिक स्वार्थों के
कारण उत्तराखंड में कुमाऊं की तराई का
मैदानी भाग तथा हरिद्वार का रुड़की,
भगवानपुर आदि क्षेत्र भी मिला दिया गया,
तथा इस
तरह विशुद्ध पर्वतीय राज्य की अवधारणा के विपरीत आधे मैदानी व आधे पर्वतीय क्षेत्र
को मिला कर अलग राज्य बना दिया गया,
किंतु फिर भी लोग बहुत खुश थे । अब उन्हें मुकदमों के लिए इलाहाबाद हाइकोर्ट जाने
की जरूरत नहीं रह गई । राजनेताओं को लखनऊ जाने की जरूरत नहीं रही । उत्तराखंड
राज्य के प्रमुख नगर देहरादून में ही अस्थाई राजधानी बन गई । अपना राज्य पुलिस मुख्यालय, अपना लोक सेवा आयोग बन गया । अपने राज्य पुष्प,राज्य पशु,
राज्य पक्षी, राज्य फल, राज्य चिन्ह बन गए ! राज्य भाषा भले ही गढवाली
या कुमाऊंनी नहीं बनी, किंतु राजभाषा हिंदी को ही राज्यभाषा के
रूप में अपना लिया गया । द्वितीय राज्य भाषा का दर्जा भी यहां की बोली- भाषाओं को
नहीं मिला, किंतु संस्कृत को यह दर्जा दिये जाने से भी
लोग असंतुष्ट नहीं थे। आखिर यह देव भूमि जो थी ।
यहां तक तो सब ठीक था. किंतु इसके बाद धीरे
धीरे राज्य एक अलग दिशा पर चलने लगा । कुछ लोग जो राज्य आंदोलन के समय में कभी
दिखाई नहीं पड़े- अब एकाएक महत्वपूर्ण होने लगे । जिन्होने गोलियां खाई थीं, जिन माताओं बहनों ने अमानवीय अत्याचार सहे थे वे धीरे
धीरे हाशिये पर धकेले जाने लगे । और सत्ता पर कांग्रेस व भारतीय जनता पार्टी जैसी
कॉरपोरेट छवि वाली पार्टियों के तथाकथित नेताओं का कब्जा हो गया । जो नीतियां यहां
की जरूरतों के हिसाब से बननी थीं वे दिल्ली के आकाओं के
इशारे पर कारपोरेट घरानों की इच्छा के
अनुसार बनने लगीं । यहां के प्राकृतिक संसाधनों से संबंधित उद्योग धंधों पर बाहरी
कंपनियों का शिकंजा कसता चला गया । छोटा सा उदाहरण जल विद्युत का ही लें । भूकंपीय
दृष्टि से जोन चार, अर्थात अति संवेदन शील क्षेत्र में होने के बावजूद,
विद्वानों व विशेषज्ञों की राय के विपरीत जाकर भी बड़ी बड़ी निजी जल विद्युत परियोजनाओं
को मंजूरी दी गई । कारखाने लगाने के नाम पर बड़े औद्योगिक घरानों को हजारों
हैक्टेअर समतल भूमि उपलब्ध कराई गई । टाटा
की नैनो कार का उदाहरण सामने है । पंतनगर कृषि विश्व विद्यालय की सैकड़ों हैक्टेअर
जमीन टाटा समूह को दी गई । अभी हाल ही में जिंदल समूह को भी किसानों की जमीनें
छीनकर स्कूल के
लिए देने का मामला न्यायालय में चल रहा है । इतना ही
नहीं,यहां के दोयम दर्जे के इन्हीं पार्टियों के
नेताओं ने दिल्ली में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए पार्टी के केंद्रीय नेताओं को ग्राम समाज की
जमीने लुटाने में नैतिकता के सारे मानदंड
तोड़ कर रख दिये। जिस जमीन पर पहला अधिकार राज्य
के भूमिहीनों का था, जिस जमीन पर राज्य के बेरोजगार नौजवान
सहकारी संस्थाएं खोल सकते थे, जिस बंजर जमीन को भूमिहीन लोग विकसित करके
अपना पेट पालने साथ साथ राज्य को आर्थिक मजबूती प्रदान कर सकते थे वही जमीन यहां
के दोयम दर्जे के स्वार्थी, चाटुकार, महत्वाकांक्षी
व तथाकथित स्वयंभू नेता दिल्ली में बैठे बड़े नेताओं को गिफ्ट में ऐसे देने लगे जैसे यह उनकी पुश्तैनी
जागीर हो।
यह स्वार्थ का खेल सिर्फ जमीन पर ही नहीं चल
रहा था । खनन के क्षेत्र में भी यह बेशर्म कवायद जोर शोर से जारी हो गई । होना यह
चाहिए था कि नदियों से बजरी , रेत,
पत्थर आदि के खनन के ठेके बेरोजगार नौजवानों
को कोआपरेटिव कमेटियां बना कर दिये जाते,
किंतु वह काम अब नेताओं के संरक्षण में माफिया करने लगे । राज्य में बजरी रेत
पत्थर जैसी बुनियादी जरूरत की बहुलता से उपलब्ध चीजों के दाम आसमान छूने लगे । आम
लोगों की मजबूरी का भरपूर फायदा उठा रहे थे माफिया। जब कभी कोई साधु- संत या
पत्रकार या टी वी चैनल इसे उजागर करता तो सरकार की तरफ से कोई कार्रवाई तक नहीं की जाती । जब
बात हद से ज्यादा बढ़ जाती तब प्रशासनिक कार्रवाई
का ड्रामा करके रस्म पूरी कर दी जाती ।
यह खेल आज भी जारी है।
उत्तर प्रदेश में जब यह प्रदेश था तब यहा के
विकास के लिए गढ़वाल मंडल विकास निगम तथा कुमाऊं मंडल विकास निगम बनाए गए थे, ताकि इस क्षेत्र का यहां के संसाधनों के अनुसार विकास
किया जा सके । इन निगमों ने यहां के धार्मिक पर्यटन को व्यवस्थित कर राजस्व का
महत्वपूर्ण स्रोत बना भी दिया था। इसी तरह फ्लश डोर फैक्टरी, लीसा उत्पादन जड़ी-बूटी उत्पादन, साहसिक
खेलों को प्रोत्साहन जैसे
अनेक कार्य यह निगम करने भी लगे थे। कई बेरोजगारों को रोजगार भी मिलने
लगा था, किंतु राज्य बनने के बाद क्या हुआ ? ये निगम बड़े
शराब माफियाओं के उत्पादन के गोदाम बना कर रख दिये गए । पहाड़ से लेकर मैदान तक
पब्लिक टेलीफोन के बूथों की तर्ज पर शराब के ठेके खोले जाने लगे । कहावत ही बन गई
कि सूरज अस्त, पहाड मस्त ! मातृशक्ति के प्रबल विरोध के कारण कई जगह ठेके नहीं खुले, किंतु शराब माफिया का मकसद पूरा हो रहा था । शराब की
बिक्री पुराने रिकॉर्ड तोड़ने लगी । देव भूमि अब दैत्य भूमि में बदलने लगी ।
शिक्षा
की बात करें तो स्कूल बहुत खुले । किंतु उनमें शिक्षक नहीं थे । शिक्षक जो नियुक्त
भी हुए, गुणवत्ता की जगह उनमें यह देखा गया कि वह
किस नेता का रिश्तेदार है या उसने कितनी रिश्वत दी है ? गलती से यदि कोई सही शिक्षक आ भी गया तो वह या तो
जिंदगी भर दुर्गम में ही पड़ा रहा या फिर विभाग की मनमानियां झेलता रहा । अतिथि
शिक्षक भर्ती किये गए किंतु उन्हें देने के लिए वेतन नहीं था। वे आंदोलन करते तो
लाठियां बरसाई जातीं। शिक्षा के स्तर का हाल यह हो गया कि जो बच्चा पास नहीं होता
उसे पहाड़ के किसी सुविधाजनक स्कूल से परीक्षा दिलाई जाती, मानो शिक्षा का
उद्देश्य केवल दसवीं या बारहवीं पास करना मात्र हो ।
फार्मासिस्टों की पहाडों के लिए भर्ती तो की
गई लेकिन तीन तीन महीने से वेतन नहीं दिया गया । जब वेतन देने के लिए पैसा नहीं था
तो बच्चों को बेवकूफ क्यों बनाया गया ?
जब राज्य पर प्राकृतिक आपदाएं आईं तो आम
जनता तो भयभीत हुई । सारी त्रासदी उसी ने सही,
लेकिन जो राहत केंद्र या समाजसेवी संगठनों से मिली वह बहुत ही सीमित मात्रा में
जरूरतमंदों तक पहुंच सकी । जो सामग्री राहत में बंटनी थी वह कर्मचारियों के घर पहुंच गई । जो बची वह अब
भी गोदामों में पड़ी है। शायद इंतज़ार है किसी आपदा का ।
( यह लेख सन 2016 मे लिखा गया था. भले ही यह अधूरा रह गया
था किंतु पूरा करने की बजाय इसे अधूरा ही ज्यों का त्यों छापा जा रहा है – लेखक )
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