1. अगस्त्य संहिता (1100 ईसवी ) मे विद्युत बैटरी तथा जल विश्लेषण द्वारा प्राण वायु तथा उदान वायु बनाए जाने का उल्लेख :
टिप्पणी : वस्तुओं के तत्कालीन और वर्तमान नाम
इस श्लोक से स्पष्ट हो जाते हैं. शिखिग्रीव अर्थात मोर की गर्दन. नीले थोथे का रंग
बिल्कुल मोर की गर्दन जैसा नीला होता है संभवत: इसीलिए नीलेथोथे का एक नाम
शिखिग्रीव पड़ा होगा. इसे रसायन ग्रंथों मे मयूर तुत्थ भी कहा
गया है.
अनुवाद – तिर्यक रज्जु
(कर्ण) का क्षेत्र शेष दोनो रज्जुओं (लंब तथा आधार) के क्षेत्र के समान होता है.
टिप्पणी : - हड़प्पा मोहेंजोदारो आदि सिंधु
सरस्वती सभ्यता के अनेक स्थलोंं से खुदाई मे यज्ञ वेदिकाएं मिली हैं. इन वेदिकाओं
का प्रयोग हवन के लिए किया जाता होगा. क्योंकि यजुर्वेद मे अनेक मंत्र ऐसे हैं
जिनमे हवन यज्ञादि
करने का उल्लेख है. इन यज्ञों द्वारा
वायु प्रदूषण समाप्त होता था. जिससे जल प्रदूषण तथा मिट्टी का प्रदूषण रुक जाते
थे. धुएं के द्वारा जड़ी बूटियों का प्रभाव सूक्ष्म जगत
(Four Dimensional world) मे प्रविष्ट होकर उन सभी कारणों को
समाप्त करता था जो स्थूल जगत (Three dimensional world) मे अपना वीभत्स रूप दिखा कर महामारियां फैलाते थे.
संस्थाप्य मृण्मये पात्रे
ताम्र पत्रं सुशोभितम ।
छादयेच्छिखिग्रीवेण चार्द्राभि:
काष्ठपांसुभि : । 1
दस्तालोष्ठो निधातव्य:
पारदाच्छदि तस्तत: ।
संयोगाज्जायते तेजो
मैत्रावरुण संज्ञितम ॥2॥
अनेन जल भंगोस्ति
प्राणोदानेषु वायुषु ।
एवं शतानां कुंभानां संयोग:
कार्यकृत स्मृत: ॥3॥
वायुबंधक वस्त्रेण निबद्धो यान
मस्तके ।
उदान स्वलघुत्वेन विभर्त्याकाश
यानकम ॥4॥
( अगस्त्य संहिता, शिल्प शास्त्रसार )
अनुवाद - मिट्टी के पात्र मे तांबे का
पत्र रक्खें और उसके ऊपर नीला थोथा बिछाएं. फिर ऊपर से लकड़ी का बुरादा बिछाएं. फिर
ऊपर से जस्त युक्त पारद का अमलगम भर दें. अब ताम्र पत्र तथा पारद को यदि जोड़ दें तो मित्रावरुण नामक
तेज उत्पन्न होता है. इस तेज से जल भंग होकर प्राण वायु तथा उदान वायु मे बदल जाता
है. अब वायुबंधक वस्त्र से यान के अग्रभाग मे उदानवायु को रक्खे. इस प्रकार यान
आकाश मे उड़ने लगता है.
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महर्षि अगस्त्य द्वारा वर्णित ड्राइसेल |
विद्युत धारा ( Current Electricity) को प्राचीन भारत मे ‘तेज’ कहते थे. कहीं कहीं अग्नि के स्थान पर तेज को भी मूल तत्व माना जाता था.
मैत्रावरुण : धारा विद्युत को तेज के साथ साथ ‘मैत्रावरुण’ भी कहते थे. मित्र तथा वरुण संभवत:
धनात्मक व ऋणात्मक दो विद्युत विभव (+, - ) थे
जिनके परस्पर मिलने पर ही तेज प्रवाहित होता था.
जल भंग (Hydrolysis) : विद्युत धारा प्रवाहित करके जल
को प्राण वायु तथा उदान वायु मे विच्छेदित किया जा सकता था. इस प्रक्रिया को ‘जल भंग” संज्ञा
दी गई थी.
प्राण वायु (ऑक्सीजन) : प्राण वायु शब्द इतना
प्रचलित हो चुका है कि हम सभी आज जानते हैं कि इसका मतलब ऑक्सीजन है. किंतु स्कंद
पुराण मे वायु पांच प्रकार की बताई गई है; अपान, समान, प्राण, उदान तथा व्यान. प्राण वायु का स्थान हृदय क्षेत्र मे तथा उदान वायु का
स्थान गले के क्षेत्र मे बताया गया है. प्राण वायु अर्थात जीवन देने वाली वायु.
उदान वायु (हाइड्रोजन ) : अब जल के विच्छेदन से
ऑक्सीजन के अलावा जो वायु मिलती है उसका नाम आधुनिक विज्ञान मे हम जानते ही हैं कि
हाइड्रोजन है. प्राचीन विज्ञान के अनुसार यह उदान वायु है. तो स्वत: सिद्ध हो जाता
है कि उदान वायु हाइड्रोजन थी. गले मे इसका स्थान होने का मतलब है कि यह सामान्य
वायु से हल्की है. अत: शरीर के निचले भाग का प्रतिनिधित्व इसे नही दिया गया.
वायु बंधक वस्त्र (Air Tight Cloth) : जिस कपड़े से होकर वायु आर
पार न जा सके उसे वायु बंधक वस्त्र कहा गया है. हो सकता है चीड़ के पेड़ों से
प्राप्त तेल (तारपीन ) के लेप से ही सामान्य वस्त्र वायु बंधक वस्त्र बन जाता
होगा.
उदान वायु से विमान उड़ाना :
वायु
बंधक वस्त्र मे हाइड्रोजन भर कर उसे विमान के आगे रखने से वह हल्का होकर विमान को
उड़ा ले जाता था. हाइड्रोजन गैस से गुबारे आज भी उड़ाए जाते हैं.
2. 800 वर्ष ईसा पूर्व मे बौधायन शुल्ब सूत्र मे पाइथागोरस प्रमेय का उल्लेख :
ग्रीस भी ईसा से शताब्दियों पहले शिक्षा व विज्ञान का प्रसिद्ध केंद्र था. 576 वर्ष ईसा पूर्व मे यहा
प्रसिद्ध विद्वान पाइथागोरस हुए थे उन्होने बताया था कि किसी समकोण
त्रिभुज की तीनो भुजाओं पर यदि तीन वर्ग बना दिये जाएं तो सबसे लम्बी भुजा- कर्ण पर जो वर्ग बनेगा उसका क्षेत्रफल लम्ब तथा आधार भुजाओं पर बने
वर्गों के क्षेत्रफल के योग के बराबर होगा.
लेकिन
पाइथागोरस से भी करीब तीन सौ साल पहले अर्थात 800 वर्ष ईसा पूर्व मे हमारे यहां
बौधायन नामक विद्वान ने अपने ग्रंथ शुल्ब सूत्र मे इस प्रमेय का उल्लेख कर दिया था
–
दीर्घ चतुरसस्याक्ष्णया रज्जू:
पार्श्वमानी तिर्यक्मानी ।
य पृथग्भूते कुरुतस्तदुभयं
करोति ।। (बौधायन शुल्ब सूत्र 1-12)
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शुल्ब सूत्र प्राचीन पांडुलिपि मे लिखित |
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बौधयन शुल्ब सूत्र |
खुदाई मे मिली इन
यज्ञवेदिकाओं का आकार रेखागणित की दृष्टि से अत्यंत शुद्ध है. जहांं समकोण
त्रिभुजात्मक आकृतियां हैं वहां समकोण वास्तव मे 90 अंश का ही है. तथा लम्ब व आधार
की माप के अनुरूप ही कर्ण की लंबाई है.
इसका मतलब है कि यज्ञ वेदिकाएं बहुत ही सटीक गणना के बाद बनाई जाती
थीं. नापने के लिए रज्जु (एक विशेष प्रकार की रस्सी) का
प्रयोग होता था.
इससे स्पष्ट है कि ग्रीक
सभ्यता से लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व रेखागणित का ज्ञान सिंधु सरस्वती सभ्यता मे
अत्यंत उन्नत अवस्था मे
था. बहुत संभव है कि मिश्र, बगदाद तथा ग्रीस
मे भी यह ज्ञान भारत से ही गया था.
सन 476 ईसवी मे कुसुमपुर (पटना) मे जन्मे
प्रसिद्ध गणितज्ञ आर्यभट ने पाई ( π ) का मान इस प्रकार दिया था.
अयुत्द्वयनिष्कम्भ्स्यासन्नो
वृत्त्परिणाह: ॥ (आर्यभटीय-10)
अनुवाद : एक वृत्त का व्यास यदि 20000 हो, तो उसकी परिधि 62232
होगी .
Π = परिधि /व्यास = 62232/20000 = 3.1416
3. परमाणु के आकार का अनुमान : हमारे षड दर्शनों मे से एक है कणाद
दर्शन. इसके अनुसार – ब्रह्मांड की सृष्टि कणों से हुई है. कह
सकते हैं कि वर्तमान क्वांंटम भौतिकी (Quantum Physics) मूल विचार हमारे कणाद दर्शन मे पहले से
ही मौजूद था. महर्षि कणाद ने परमाणु के आकार का
अनुमान इस प्रकार किया है -
जालांतर्गते भानौ
सूक्ष्मयद्दृश्यते रज: । तस्यात्षष्ष्टितमो भाग: परमाणू स उच्च्यते ॥
अर्थ- मकड़ी के जाल के तंतुओं से
अत्यंत सूक्ष्म जो धूल के कण दिखाई पड़ते हैं उनका साठवां भाग परमाणु कहलाता है.
4. पृथ्वी
से सूर्य की दूरी – रामचरित मानस के रचयिता महाकवि तुलसी दास जी ने श्री
हनुम्मान जी के महान कार्यों पर चालीस दोहे रचे थे जिन्हे हम हनुमान चालीसा के रूप
मे जानते हैं. इसमे कहा गया है –
युग सहस्त्र योजन पर भानू । लील्यो
ताहि मधुर फल जानू (श्री हनुमान चालीसा)
कुछ विद्वानो का मत है कि इन
पंक्तियों मे सूर्य तथा पृथ्वी के बीच की दूरी
बताई गई है.
युग (12000
दिव्य वर्ष) x सहस्त्र(1000) योजन) x 12.8 किलो मीटर
12000 x 1000 x
12.8 = 153600000.0 कि.मी. अर्थात 15.36 करोड़ कि
मी. आधुनिक विज्ञान से भी यह दूरी 14.96 करोड़ किमी. आती है.
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